हिमाचल के इस शहर में नहीं मनाया जाता दशहरा

Himanchal

(शिमला,हिमाचल प्रदेश)01अक्टूबर,2025.

देशभर में इस साल 2 अक्टूबर को दशहरा उत्सव मनाया जाएगा. दशहरा को विजयादशमी के रूप में मनाया जाता है. मान्यताओं के अनुसार इसी दिन श्री राम ने रावण का वध किया था. ऐसे में विजयादशमी के अवसर पर रावण दहन कर दशहरा मनाया जाता है. दशहरे का नाम लेते ही दिमाग में क्या आता है, मेले की धूम, रामलीला मंच और रावण दहन. ऐसे में रावण दहन के बिना दशहरे की धूम फीकी सी लगती है. वहीं, हिमाचल प्रदेश में एक स्थान ऐसा भी है, जहां दशहरा नहीं मनाया जाता है, न ही तो यहां पर रावण दहन होता और न ही किसी तरह का मेला।

यहां नहीं मनाया जाता दशहरा:
हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी के बीच बसे बैजनाथ कस्बे में दशहरा नहीं मनाया जाता है. यहां दशहरे पर न ही कोई धूम होती है, न कोई मेला लगता है, आतिशबाजी नहीं होती है, पुतलों की तैयारी भी नहीं होती है और रावण दहन तो बिल्कुल भी नहीं होता है. कांगड़ा की हसीन वादियों के बीच बसा बैजनाथ कस्बा देशभर में भगवान शिव के प्राचीन मंदिर के लिए प्रसिद्ध है. मगर यहां की परंपरा इसे पूरे देश से अलग करती है, क्योंकि यहां दशहरा बिल्कुल नहीं मनाया जाता है. जहां पूरे भारत में बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में रावण दहन किया जाता है. वहीं, बैजनाथ का माहौल दशहरे के दिन बिल्कुल शांत रहता है।

कांगड़ा घाटी में स्थित है बैजनाथ मंदिर क्यों नहीं मनाया जाता दशहरा?

बैजनाथ मंदिर के स्थानीय पुजारी आचार्य सुरेंद्र कुमार बताते हैं कि बैजनाथ रावण की तपोस्थली है. पौराणिक धार्मिक मान्यता है कि यहीं पर रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया था. जिसके चलते इस स्थान को रावण की तपोस्थली के रूप में मान्यता मिली है. ऐसे में यहां पर रावण को राक्षस के रूप में नहीं बल्कि भगवान शिव के परम भक्त के रूप में देखा जाता है।

“रावण भगवान भोलेनाथ का परम भक्त था. ऐसे में यहां दशहरे पर रावण का पुतला जलाना उचित नहीं माना जाता है, क्योंकि भगवान अपने सामने अपने भक्त का जलता हुआ कैसे देख सकते हैं. इसलिए यहां पर दशहरा ही नहीं मनाया जाता है.” – आचार्य सुरेंद्र कुमार, स्थानीय पुजारी, बैजनाथ मंदिर।

दशहरे से जुड़ी मौत और भय की कहानियां:
आचार्य सुरेंद्र कुमार बताते हैं स्थानीय लोगों की मान्यता है कि बैजनाथ में दशहरा मनाने की कोशिश कभी सफल नहीं हुई है. 70 के दशक में कुछ युवकों ने सोचा कि क्यों न बैजनाथ में भी रावण का पुतला जलाया जाए. मंदिर के सामने वाले मैदान को रावण दहन के लिए चुना गया. पहले साल जिस युवक ने दशहरा के दिन रावण को आग लगाई थी, अगले दशहरे तक वो जीवित नहीं रहा. इसके बाद रावण दहन की कोशिश दो से तीन बार की गई, लेकिन हर बार कोई न कोई अनहोनी हो रही थी. जिसके बाद यहां के लोगों ने कसम ही खा ली थी कि अब से इस धरती पर कभी भी दशहरा नहीं मनाएंगे. ये बात यहां के लोगों के दिलो-दिमाग में आज तक गहराई में दर्ज है. दशहरे के दिन कस्बा बिल्कुल शांत हो जाता है. यहां न तो कोई मंच सजता है और न ही कोई भीड़ उमड़ती है।(साभार एजेंसी)

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